श्रीमद् भगवद्गीता – अध्याय एक – श्लोक – 2

संजय उवाच  

दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌ ॥

शब्दार्थ:

संजय ने कहा – हे राजन ! पाण्डुपुत्रों द्वारा सेना की व्यूहरचना देखकर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे ।

भावार्थ:

पांडवो की सेना व्यूह का निरीक्षण करके दुर्योधन अपने गुरु के समक्ष गया ! दुर्योधन यदपि बलवान था, उसके पास पांडवो की अपेक्षा सैन्य बल भी अधिक था, कई दिग्गज महारथी उसके पक्ष मे युद्ध भूमि मे उसके समक्ष उपस्थित थे परन्तु फिर भी दुर्योधन भयभीत था । उसे कही न कही पराजित होने का भय था । मनुष्य भौतिक प्रसाधन, बल एवं उपलब्धिया कितनी भी प्राप्त कर ले परन्तु जब तक वह जीवन के वास्तविक लक्ष्य को नही जानता, तब तक वह भयभीत रहता है । चाहे कितना भी बल, धन प्रसाधन वह एकत्रित कर ले, वह शांति को प्राप्त नही करता । जीवन के प्रत्येक नए दिवस, प्रत्येक क्षण मे उसे नई चुनौती का सामना करना ही होता है और वह प्रत्येक चुनौती उसे भयभीत करती है । पांडवो के पास यदपि कम सैन्य बल था तथापि वे भय मुक्त थे । इसके विपरीत दुर्योधन के पास बल अधिक होने पर भी वह भयभीत था, आशंकित था । दोनो का कारण एक ही है, और वह है सत्य का प्रभाव । भगवान श्रीकृष्ण जो परम सत्य है, पांडवो के साथ थे, इसी कारण उनका मनोबल नही घटा और वह अपनी विजय के प्रति आश्वस्त थे । साथ ही उनके भयभीत न होने का एक और मुख्य करण था और वह था आकांक्षा रहित हो कर्म करने की प्रेरणा । उनके मन मे किसी भी प्रकार की भी लोभ जनित आकांक्षा नही थी, जिसके कारण वह भय मुक्त थे । इसके विपरीथ दुर्योधन अत्याधिक महतवाकांक्षी था एवं उसके साथ भगवान श्रीकृष्ण न थे । इसी कारण से साधन एवं बल अधिक होने पर भी वह आशंकित एवं भयभीत था । लोभ जनित आकांक्षाए भय का कारण होते है । इसके बारे मे आगे के अध्यायो मे यह विस्तार से स्पष्ट किया जाएगा ।

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